नक्सलवाद रोकथाम के लिए रणनीति बदलनी होगी

            देश वर्तमान में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक समस्याओं से जूझने के साथ ही साथ कतिपय उग्र घटनाओं से भी दो-चार हो रहा है। इस तरह की घटनाओं में आतंकवाद, क्षेत्रवाद, वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त हम नक्सलवाद को भी देख सकते हैं। नक्सलवाद किसी तरह का आतंकवाद न होकर भी खूनी संघर्ष बना हुआ है। समय के लगातार परिवर्तन और इसके सापेक्ष होते आये शक्ति प्रदर्शन ने नक्सलवाद को हिंसा के समीप खड़ा कर दिया है। प्रसिद्ध नेता माओत्से तुंग की आदर्श खूनी क्रांति की उक्ति पावर कम्स आउट ऑफ़ द बैरल ऑफ़ ए गन (सत्ता बंदूक की नली से निकलती है) के पार्श्व में नक्सलवाद के बीज आरोपित होते दिखते हैं। वामपंथी विचारधारा से लैस माओत्से सदा ही आदर्श खूनी क्रांति के समर्थक रहे और यही कारण है कि किसी न किसी रूप में उनकी विचारधारा को, उनको आदर्श मानने वालों ने भी किसी न किसी तरह से खूनी क्रांति के रास्ते को अपनाना उचित समझा।

            पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव में सन् 1967 में शुरू हुआ वर्ग-संघर्ष भू-स्वामियों के विरुद्ध भूमिहीन किसानों और बेरोजगार युवकों द्वारा चलाया गया। इस संघर्ष को सन् 1964 में अस्तित्व में आई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं तत्कालीन जिला स्तरीय नेता चारू मजूमदार, कानू सन्याल तथा जंगल सन्थाल ने नेतृत्व प्रदान किया। इस संघर्ष को इन नेताओं के द्वारा चलाने के पीछे कहीं न कहीं पार्टीगत विरोध की अवधारणा भी कार्य कर रही थी। पार्टी से नाराज इन नेताओं को नक्सलवाड़ी गाँव में चल रहे संघर्ष को एक स्वरूप देने का मौका मिला। इसी अवसर के बीच नक्सलवादी विराधारा को सैद्धान्तिक समर्थन सन् 1969 में उस समय मिला जब चीन की नौवीं कांग्रेस सम्पन्न हुई। माओ के विचारों की चरम सीमा को भारत में भी इन नेताओं ने प्रमुखता से बढ़ावा देना चाहा। इसी के परिणामस्वरूप नक्सलवादी नेता चारू मजूमदार ने घोषणा की कि चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन है। सन् 1967 में किसानों, मजदूरों और जमींदारों के बीच का वर्ग-संघर्ष एक आन्दोलन के रूप में तीव्रता पकड़ने लगा। कभी पश्चिम बंगाल के चार जिलों में फैला यह आन्दोलन लगातार अपने कार्य-प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करता रहा। वर्तमान में एक आँकड़े के अनुसार नक्सलवाद देश के बीस राज्यों के लगभग 225 जिलों को अपने प्रभाव में ले चुका है। पश्चिम बंगाल से चलते हुए इस खूनी आन्दोलन ने छत्तीसगढ़, झारखण्ड, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, बिहार, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में प्रमुखता से कहीं कम, कहीं ज्यादा के रूप में अपना प्रभाव दिखाया है। एम०सी०सी०, टी०पी०सी०, जे०पी०सी०, एन०डी०बी०एस०, उल्फा, आर०सी०सी०, पी०डब्लू०जी० जैसे कई सारे संगठन अस्तित्व में आये। इन संगठनों ने अपनी हनक और शक्ति प्रदर्शन के चलते अकारण हत्याओं के साथ-साथ धन उगाही, अपहरण, लूटमार जैसी घटनाओं में अपनी संलिप्तता प्रदर्शित कर दी। यदि कहा जाये कि नक्सलवाद अब एक विचारधारा अथवा एक आन्दोलन के स्थान पर आतंकवाद अथवा सशस्त्र खूनी हिंसा के समकक्ष खड़ा हो गया है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नक्सलियों द्वारा होती हिंसा और सशस्त्र कार्यवाहियाँ इस बात की पुष्टि भी करतीं हैं। लगातार मिलती हिंसात्मक सफलताओं के बाद से नक्सलवादियों को एहसास होने लगा कि वे भी अपने प्रभुत्व और ताकत को बढ़ाकर उसका उपयोग स्वयं की विचारधारा को राजनैतिक गलियारों में खड़ा कर सकते हैं। इस सोच ने नक्सलवादी आन्दोलन को आन्दोलन के स्थान पर कारपोरेट रूप धारण करवा दिया। अब वह सामाजिक समरसता की बात कम और अपने विस्तार की बात अधिक करता दिखता है। मजदूरों, शोषितों के हक की लड़ाई कम और धन उगाही का काम अधिक करता है। वर्तमान में नक्सलियों का निशाना शोषक ही नहीं वे भी है जो उसके कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। इस प्रकार के तथ्य आसानी से इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि वर्तमान में नक्सलियों ने अपने उद्देश्य को बदल लिया है।

            देखने-सुनने में यह समस्या जितनी भयावह दिखती है वास्तविकता में उससे कहीं अधिक भयावह है। आये दिन पुलिस थानों पर हमले, रेलवे स्टेशनों को जलाया जाना, स्कूलों, अस्पतालों को बन्द करवा देना, बारूदी सुरंग बिछाना, चुनावों में हिंसा करना, बसों-ट्रेनों में बम धमाके, सरकारी अधिकारियों को मारना, व्यापारियों, शिक्षकों, ठेकेदारों, राजनीतिकों से वसूली करना, वसूली न देने पर हत्या करना, क्षेत्र के विकास कार्यों में बाधा खड़ी करना, अफीम, गाँजे की अवैध खेती कराना, अपहरण, हत्या आदि दर्शाते हैं कि नक्सली आन्दोलन अब आतंकवाद की ओर बढ़ रहा है। नक्सलियों ने अब सामाजिक समरसता का रास्ता छोड़ दिया है, अब उनके लिए राज्य सरकारों को, केन्द्र सरकार को उखाड़ फेंकना ही प्रमुख हो गया है। सामान्यतः लोगों ने नक्सली आन्दोलन को आदिवासियों द्वारा अपने हित और हक के लिए चलाया जाने वाला आन्दोलन मान रखा था, यहाँ तक कि आज भी बहुत से लोग इसको हिंसात्मक आन्दोलन अथवा आतंकी घटना मानने को तैयार नहीं हैं। इसके परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए कि कैसे नक्सली बन्दूक उठाये सिर्फ और सिर्फ सत्ता की प्राप्ति के लिए हमले करते घूम रहे हैं। दुश्मन का दुश्मन दोस्त की रणनीति नक्सली भी बनाकर पूर्वोत्तर राज्यों के आतंकवादियों से हाथ मिला कर पूरे देश में आतंकी हमले करने की, हिंसक वारदातों में तेजी लाने की आपील कर रहे हैं। प्रतिदिन अत्याधुनिक हथियारों से लैस होना, अत्याधुनिक तकनीकों का प्रयोग हिंसात्मक कार्यवाहियों के लिए करना नक्सलियों के मंसूबों को स्पष्ट करता है। हाल के वर्षों में सैन्य बलों के साथ-साथ क्षेत्र के भोले-भाले नागरिकों की हत्या कर डालना, हिंसक कार्यवाहियों के दौरान छोटे-छोटे मासूम बच्चों का मारा जाना, वृद्धों को मौत की नींद सुला देना, आदिवासियों, जंगलवासियों पर जबरन कार्य करने का, नक्सली आन्दोलन से जुड़ने का दवाब बनाना दर्शाता है कि अब नक्सली भी किसी भी रूप में सत्ता और शक्ति की प्राप्ति चाहते हैं। जंगलवासियों की समस्या का समाधान, आदिवासियों के हकों की प्राप्ति, सामाजिक समरसता की चाह उनके लिए अब गौण हो चले हैं।

            ऐसे में सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि क्या नक्सली समस्या से निपटने का कोई उपाय नहीं है? क्या देश के एक जिले से फैलता हुआ लगभग चालीस प्रतिशत भू-भाग पर फैल चुका नक्सलवाद समूचे देश को अपनी गिरफ्त में ले लेगा? जंगलवासियों, आदिवासियों के नाम पर चलाया गया आन्दोलन, जमींदारों के शोषण से मुक्ति पाने के लिए चलाया गया आन्दोलन, शोषितों को समाज में समानता दिलवाने के लिए प्रारम्भ हुआ आन्दोलन क्या महज स्वार्थपूर्ति में लगा रहेगा? समानता, सामाजिक समरसता, भेदभाव, न्याय जैसी विशिष्ट अवधारणा को लेकर चला संघर्ष क्या हिंसा, अपहरण, हत्या जैसी आतंकी घटनाओं में परिवर्तित हो जायेगा? इन सवालों के जवाब खोजने के लिए सरकार को इन्हीं सवालों की तह में जाना होगा। देखा जाये तो क्षेत्र के आम आदमियों से जुड़ी समस्याओं को लेकर चल रहे इस आन्दोलन को किसी भी रूप में हिंसात्मक कार्यवाहियों के द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता है। हाँ, यह तो सम्भव है कि कुछ समय को यह आन्दोलन सशस्त्र बलों के कारण सुसुप्तावस्था में चला जाये किन्तु इसी समाप्ति पर शंका ही रहेगी। राज्य सरकारों ने नक्सलियों से लड़ने के लिए ग्रीन टाइगर्स, ब्लैक टाइगर्स, क्रांति सेना, तिरुमल टाइगर्स, गुप्त सैनिक, ग्रे हाउंड, ग्रीन हंट जैसे विशेष दस्ते और अभियान चला रखे हैं और तो और राज्य सरकारों ने नक्सलियों के सफाये के लिए केन्द्र को संयुक्त अभियान की कमान सौंप रखी है। इसके बाद भी नक्सलवाद को समाप्त करना तो दूर सरकारें उसे दबा पाने में भी सफल नहीं हो सकी हैं। इसके पीछे एक-दो कारण प्रमुखता से सामने आते दिखे हैं। एक तो नक्सलियों को किसी भी रूप में सही स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त है, इस कारण से सशस्त्र बलों को नक्सलियों को चिन्हित कर पाना कठिन होता है। दूसरा जो एक और प्रमुख कारण है वो यह कि वर्तमान में नक्सलियों की ताकत और उनकी सांगठनिक क्षमताओं को देखने-परखने के बाद विभिन्न राजनैतिक दलों के राजनेता भी दबे-छिपे तथा खुले रूप में भी नक्सली आन्दोलन को हवा देते, समर्थन देते दिखे हैं। इस तरह की घटनाएँ जहाँ एक ओर सरकारों के कदमों को पीछे धकेलती हैं वहीं दूसरी ओर नक्सलियों को प्रोत्साहित करती हैं।

            सरकार को चाहिए कि आदिवासियों और जंगलवासियों में यह विश्वास पैदा करें कि जंगल की सम्पत्ति, वन-सम्पदा उनकी अपनी है, उस पर उन्हीं का हक है। केन्द्र सरकार को, राज्य सरकारों को इस तरह के कार्य करने होगे जो विश्वास की परम्परा को बनाये रखते हुए नक्सली आन्दोलन से जुड़े लोगों को राष्ट्र की, विकास की मुख्य धारा में शामिल कर सकें। पुलिस सत्रांश सेना में नवयुवकों की भर्ती लगातार की जा रही है। इन संगठनों में भर्ती के इच्छुक युवकों को सामान्य सा पैकेज न देकर उनको पूर्ण कालिक रोजगार देकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर देना चाहिए। सरकारों को अत्याधुनिक तकनीकों को सहारा लेकर नक्सलियों की आपसी बातचीत को रिकार्ड करने के संसाधन लगाने होंगे। संचार उपकरणों के द्वारा उनके छिपे होने के स्थानों और कार्यवाहियों के क्षेत्रों की भी खोज करनी होगी। नक्सलियों की जानकारी आम जनता के बीच उपलब्ध करवाने के लिए सरकार को अपना संचार-तन्त्र अत्याधुनिक उपकरणों से लैस करना होगा। स्थानीय समाचार-पत्रों, संचार माध्यमों के माध्यम से जानकारी जनता के मध्य वितरित करनी होगी। नक्सली आन्दोलन से हो रहे आन्तरिक खतरों और सुरक्षा की दृष्टि से किसी भी नीति को लम्बे समय तक के लिए नहीं बनाया जाना चाहिए। छोटे-छोटे समयबद्ध कार्यक्रमों के द्वारा सरकार अपनी नीति का निर्धारण करके नक्सली समस्या से निपटने का रास्ता खोजे।


            सरकार और नक्सलियों के समर्थकों के मध्य इस बात को लेकर एकमतता है कि सुलह का रास्ता बातचीत के बाद निकलता है तो सरकार को वार्ता करने में किसी तरह का गुरेज नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही सरकार को स्पष्ट कर देना चाहिए कि वार्ता के कुछ पूर्व-निर्धारित दौर ही चलेंगे और इन्हीं में समस्या का समाधान राष्ट्र और समाज को ध्यान में रखकर करना होगा। वार्ता के लिए नक्सलियों को अपना एक सर्वमान्य नेता स्वीकार करना होगा क्योंकि हो यह रहा है कि आज प्रत्येक नक्सली संगठन स्वयं को नक्सली आन्दोलन का स्वयंभू अगुवा घोषित करके वार्ता को अपनी शर्तों पर करवाना चाहता है। यह दोनों पक्षों को समझना होगा कि शांति का रास्ता एक व्यवस्थित मन्त्र और तन्त्र के द्वारा ही निकलता है। कुल मिला कर यह तो कहा ही जा सकता है कि आज नक्सलवाद किसी न किसी रूप में पाकिस्तान द्वारा संचालित आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। देश के प्रधानमंत्री सहित कई केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा भी इसे स्वीकारा जा चुका है। सरकार के केन्द्रीय तन्त्र को अब बिना समय गँवाये पूर्ण दृढ़ इच्छा-शक्ति के साथ संकल्प लेते हुए सार्थक और सकारात्मक कदम उठाना ही होगा। नक्सली समस्या का हल भले ही हिंसा से न हो, वार्ता से हो पर उसे भी पूर्ण संकल्प और दृढ़ता के साथ करना होगा। एक बात सरकार को, शासन को, प्रशासन का, सशस्त्र बलों को और स्वयं नक्सलियों को भी समझनी होगी कि संकल्प का कोई भी विकल्प नहीं होता और प्रशासन से बढ़कर कोई भी तन्त्र नहीं होता है। 

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उक्त आलेख दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक 02-05-2017 को प्रकाशित किया गया. 

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